भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

आखिर तद कांईं ? / इरशाद अज़ीज़

Kavita Kosh से
आशिष पुरोहित (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 10:19, 16 जून 2020 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार= इरशाद अज़ीज़ |अनुवादक= |संग्रह= मन...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

जाणूं हूं
थूं नीं जा सकै
काच साम्हीं
आपरै साच सूं
कद तांई भाजसी
कद तांई करसी हाको
आपरै मन रै मांयलै
सरणाटै नैं तोड़ण सारू
कद तांई
अंधारै में भाजतो रैसी
खावतो रैसी ठोकरां
रोंवतो रैसी
आपरी किस्मत नैं।
खोल’र देख आंख्यां
थारै चौफेर
थारै ओळै-दोळै रा लोग
अचूंभो करै
थारै मिजळैपण माथै।