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आखेट / उत्पल बैनर्जी

अलमारी में बंद किताबें
प्रतीक्षा करती हैं पढ़े जाने की
सुरों में ढलने की प्रतीक्षा करते हैं गीत
प्रतीक्षा करते हैं -- सुने जाने की
अपने असंख्य क़िस्सों का रोमांच लिए
जागते रहते हैं उनके पात्र

जिस तरह दुकानों में
बच्चों की प्रतीक्षा करते हैं खिलौने
किताबें, पढ़ने वालों की प्रतीक्षा करती हैं
लेकिन जब उन्हें नहीं पढ़ा जाता
जब वे उन हाथों तक नहीं पहुँच पातीं
जो उनकी असली जगह है
तो बेहद उदास हो जाती हैं किताबें

घुटन भरे अँधेरे में हाँफने लगते हैं उनके शब्द
सूखी नदी की तरह आह भरती उनकी साँसें
साफ़ सुनाई देती हैं
उन पर समय की धूल-सा झरता रहता है दुःख
धीरे-धीरे मिटने लगते हैं उनके जीवन के रंग
विवर्ण होते जाते हैं उनके सजीले चेहरे
देह सूखकर धूसर हो जाती है

वे बदरंग साड़ियाँ पहनी स्त्रियाँ हैं
जो जवानी में ही विधवा हो गई हैं,
वे अकसर कोसती हैं अपनी क़िस्मत को
कि आखि़र उन्हें क्यों लिखा गया
और इस तरह घुट-घुट कर
मरने के लिए धकेल दिया गया क़ब्र में,

रात के सन्नाटे में उनका विलाप
नींद की देहरी पर सिर पटकता फ़रियाद करता है,
धीरे-धीरे वे बीमार और जर्जर हो जाती हैं
ज़र्द होती जाती हैं आँखें
फेफड़ों को तार-तार कर देती है सीलन
उपेक्षा की दीमक उन्हें कुतर कर खा जाती हैं

दरअसल वे लावारिश लाशें हैं जिन्हें लेने कोई नहीं आता
किताबें
गाँव जंगलों से खदेड़ दिए गए लोग हैं
जिनका बाज़ार ने आखेट कर लिया है!!