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आगँतुक पण्डित पागल क्यों था / तोताबाला ठाकुर / अम्बर रंजना पाण्डेय

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मेरी माँ का नाम शाम्भवी, जिन्हें मैं प्रेम से सती या सती शाम्भवी भी कहती थी। मेरे पिता का नाम श्रीमान रासशिरोमणि राय था। मेरी माँ आगन्तुक पण्डित को उनकी विक्षिप्तावस्था में हमारे घर ले आई थी।)

देवदास की भाँति प्रेम में सबकी नियति
मरना तो नहीं होती न सबकी नियति पार्वती की
भाँति अपने स्वामी का विचार त्याग अपने प्रियतम के
पीछे दौड़ते मर जाने की होती है

बहुत अभागे विक्षिप्त हो जाते है प्रेम में
आगन्तुक पण्डित की भाँति, उन्नीस वर्ष की वय
उस पर रासबाबू की स्त्री से तीक्ष्ण आसक्ति
तारकेश्वरी के खड्ग की भाँति जिसने भेद दिया था
अन्तर शाम्भवी का

एक मध्याह्न नहीं आ पाई शाम्भवी तो
तारकेश्वरी को करने लगा चुम्बन, भरने लगा विग्रह को
बारम्बार आलिंगन में
माँ को नहला दिया अपने ह्रदय के रक्त से,
उसे घोषित कर दिया विक्षिप्त उसके ही पिता ने

भुवन भरा है जो असँख्य जन से
सबसे मान लिया आगन्तुक पण्डित को क्षुब्धमन
किन्तु जिसके पीछे पागल हुआ उस शाम्भवी ने
उसे नहीं माना पागल, सदैव कहती,
'आगन्तुकदा, विकृतमस्तिष्क नहीं कवि है
उनके ह्रदय को गूँथ दिया किसी ने माला में
सुई से छिन्न बिन्धे ह्रदय की यन्त्रणा कम न होती
यदि प्रेम छोड़ उसकी मृत्यु हुई होती'

क्या अपनी प्रिया के स्वामी की हत्या करना
कौर तोड़ने जितना स्वाभाविक नहीं है, बन्धु !

वहीं किया भाद्रमास की एक रात्रि
घोंट दिया कण्ठ, आज भी जाओगे यदि नबागतपाड़े
बोईबाड़ी तो तुम्हें सुनाई पड़ेगा
सती शाम्भवी का क्रन्दन अपने मृत स्वामी और भाग चुके
क्षुब्धमन प्रियतम के लिए
जिसके लिए वह नष्ट हुई थी
वर्षा में मिट्टी के ढेले की भाँति ।