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आगत सुनहरी भोर से धुले हुए एक नए सवेरे तक / सुरेश चंद्रा
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मैं सौंप देना चाहता हूँ
मेरे इन नेत्रों में समाहित
एक समूचे दिन का कोलाहल
समस्त पीड़ा, भय, आशंकाएँ
अपने अंदर के संबल की भुजाओं को
मैं पुकारना चाहता हूँ देह के किवाड़ों के पीछे
खड़े उस साहसी को, जो तनिक ना झाँकने दे
अपनी सहजात दुर्बलता को, खीसें निपोरते हुए
मैं ढूँढता हूँ, निद्रा का निडर निरापद
कोमल स्वप्नों का आलिंगन
आगत सुनहरी भोर से धुले हुए एक नए सवेरे तक.