भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

आगमन वसन्त का / येव्गेनी येव्तुशेंको

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज


धूप खिली थी
और रिमझिम वर्षा
छत पर ढोलक-सी बज रही थी लगातार
सूर्य ने फैला रखी थीं बाहें अपनी
वह जीवन को आलिंगन में भर
कर रहा था प्यार

नव-अरुण की
ऊष्मा से
हिम सब पिघल गया था
जमा हुआ
जीवन सारा तब
जल में बदल गया था

वसन्त कहार बन
बहंगी लेकर
हिलता-डुलता आया ऎसे
दो बाल्टियों में
भर लाया हो
दो कम्पित सूरज जैसे


मूल रूसी भाषा से अनुवाद : अनिल जनविजय