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आजकल / नरेश अग्रवाल

रात बढ़ रही है अपने चरम की ओर
और शहर तैयारी कर रहा है सोने की
कुछ दुकानें अभी भी खुली हैं
निर्भीक ग्राहकों को पेय परोसती हुई

चारों तरफ घूम रही हैं गाडिय़ॉं
पुलिस जासूसों की टटोलती हुई अपराधियों को
अचानक एक चीख निकलती है कहीं दूर से
हेडलाइट की रोशनी की तरह
और कत्ल हो जाता है किसी का
सोये लोग जाग उठते हैं आस-पास के
और मचाते हैं शोर कौओं की तरह

उड़ती है यह खबर आकाश में
और छप जाती है इन्तजार करते अखबारों में
सुबह-सुबह पढ़ते हैं लोग जिसे
हाथ की अंगुलियों में थामकर
चाय की गर्म- गर्म प्याली के साथ
जैसे यह कोई अखबार नहीं
ताजे बिस्कुट का एक टुकड़ा हो।