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आज हर क़तरे को अपने आप में दरिया किया / रवि सिन्हा

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आज हर क़तरे को अपने आप में दरिया किया
आपको इतनी तरह सोचा कि इक मजमा किया

गो क़रीने से सजीं थीं घर में यादें आपकी
साफ़ कुछ शीशे किए कुछ ख़ुद को भी उम्दा किया

इस ख़ला-ए-सर्द में जीने को सूरज का अलाव
और जल मरने को आतिश दिल में लो पैदा किया

एक मुस्तक़्बिल<ref>भविष्य (Future)</ref> था अपने पास इक माज़ी<ref>अतीत (Past)</ref> भी था
छिन गए दोनों तो बस इमरोज़<ref>आज का दिन (Today)</ref> को दुनिया किया

बारहा ख़ुद की बुनावट दी अनासिर<ref> पंचतत्त्व (Elements)</ref> तक उधेड़
औ' बुना वापिस तो कोई अजनबी उभरा किया

ख़ल्क़<ref>लोग (People)</ref> में ख़ल्वतनशीनी<ref>एकान्तवास (To be alone)</ref> और बातिन<ref>अन्तर्मन (Inner self)</ref> में हुजूम
ऐ ग़मे-दिल देख ख़ुद का हाल ये कैसा किया

डूबते सूरज से रौशन है नगर का ये हिसार<ref>किला, घेरा (Fort)</ref>
सोचकर कुछ हमने रुख़ अब जानिबे-साया किया

ये सहर ज़ुल्मत<ref>अन्धेरा (Darkness)</ref> की बेटी है इसे ये तो न पूछ
क्या मिला विरसे में उसपर नाज़ भी कितना किया

क्या हुआ जो क़ैद हैं अदने से सैयारे<ref>ग्रह (Planet)</ref> पे हम
नाप ली ज़र्फ़े-निहानी<ref>आत्मा का बर्तन (Container of the soul)</ref> आसमाँ को वा<ref>खुला (Open)</ref> किया

शब्दार्थ
<references/>