भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

आज होली रे / सुनीता शानू

Kavita Kosh से
Sharda suman (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 20:27, 9 जुलाई 2019 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=सुनीता शानू |अनुवादक= |संग्रह= }} {{KKCat...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

ओढ़ चुनर सतरंगी
जो बदला रंग धरती का
नीला हठीला आसमां भी
हो गया रंगीन
कि आज होली रे...

चाँदी से उजले मतवाले बादल
ज्यों बिनौलों संग गुँथे
चमकीले रूई के फूल
निकल भागी हो जैसे
उजली कपास फूलों से
कि आज होली रे...

दूर कहीं कलरव करती
चली परिन्दों की बरात
कहीं बजी बाँस में शहनाई
और महकती बह चली
रंगीन पुरवाई
कि आज होली रे...

और कहीं छाई है लाली
पनघट पे चलती कोई
गोरी का जैसे सिन्दूरी रूप
कहीं सरसों के बागानों में
चिलचिलाती धूप
कि आज होली रे...

पूरब ने पश्चिम में
फेंका हो जैसे
एक दहकता लाल गुब्बारा
ढलते-ढलते रंग लाया
ढलता सूरज मुस्काया
हर पल जीवन हो सतरंगी
कि आज होली रे...