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आज / जय गोस्वामी

उतरी है अपूर्व शाम !
समूचे मैदान में, नरम-गुनगुनी उतरी है धूप !
धूप, आम के पेड़ की दरारों से
उतरी है दरवाज़े तक !
उस शोकाहत घर के ऊपर
आकर बैठा है, सिर्फ़ एक कौआ !
उसमें भी, काँव-काँव की, नहीं है हिम्मत,
काफ़ी देर-देर तक रोने के बाद,
कोई पुत्र-हारा औरत, अभी-अभी
थककर सोई है !
कहीं उसकी नींद न टूट जाए!

००

बंगाल के तन-बदन से झर रहा है ख़ून...

बंगाल के तन-बदन से झर रहा है ख़ून,
झर रहा है ख़ून, तन-बदन से!
कोई दौड़कर पहुँचा है, नहर के उस पार,
छाती फाड़कर पुकारा किसी माँ ने--
रवि रे...ऽ...ऽ...
जवाब की जगह, पलटकर गूँज उठा,
कौन रवि? कौन पुष्पेन्दु? या भरत?
ढूंढ़ने पर, कौन मिला? कौन नहीं मिला?
किसको देखा गया आख़िरी बार,
धक्का-मुक्की में, जनता के जमघट में
रवि तो चालान हो गया, लाश बनकर
और-और लाशों की भीड़ में !

००

बंगाल के बदन से झरता है ख़ून ! झर-झर !
झरता है ख़ून ! ख़ून झरता है !
पीछे-पीछे दौड़ते हैं कुत्ते--
पकड़ो ! पकड़ो ! धरो ! धरो !
उनके पीछे दौड़ते हैं,
राज-अनुचर !
यह ख़ून सँजो रखना होगा !
मिलाना होगा यह ख़ून सीमेंट-रेत में
तभी तैयार होंगे कतार-दर-कतार
कारखाने ! घर-मकान !
उसके बाद,
भोंपू लगाकर,
भौं-भौं बजाएंगे सायरन

अगर कर न पाओ यह काम,
तो आएगा व्यापारी
नोच ले जाएगा, तुम्हारा आख़िरी लज्जावस्त्र,
तुम्हारे बदन से!

००

मेरी अहमियत थी बादलों में,
प्राणमय, चिन्हमय जनपद में !
मेरी अहमियत थी
जी भर-भरकर नई-नई फसलों में
सड़क के दोनों ओर निहारते हुए, अछोर खेत-मैदानों में,
मेरी अहमियत थी...
आज,
मेरी अहमियत है, सिर्फ़ ख़ून में नहाते हुए,
बलि-काठ में !

००

काफ़ी-कुछ के बीच
उगता है सूरज !
बन्द स्कूलों की दीवारों पर, शिखर पर
पड़ती है धूप !
पड़ती है धूप, माटी खोदते हुए
कुदाल और बेलचों पर !
पड़ती है धूप, लापता बच्चों की
ख़ून में सनी, स्कूली पोशाकों पर
 
     
बांग्ला से अनुवाद : सुशील गुप्ता