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आज / सुशील कुमार झा / जीवनानंद दास

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ख़त्म हुए सारे काम
और मेरे ये क्लांत पाँव
आज रात -
बची नहीं चाह
किसी और राह की।

प्रेम की जो भाषा
सुनना चाहता है मनुष्य – जिस प्यार को लेकर
चलना चाहता है वह इस पृथ्वी की अनजान राहों पर –
उसी नेह की खोज में
पुकारा था मैंने तुम्हें बार बार।

...दूर किसी आलोक में – एक अंधकार के किनारे
चली गई तुम यूँ,
मानो कभी वापस आओगी ही नहीं,
गुम हो गई थी तुम भी
दिन - रात की इस भीड़ में।