http://kavitakosh.org/kk/index.php?title=%E0%A4%86%E0%A4%A0_%E0%A4%B8%E0%A4%BE%E0%A4%B2_%E0%A4%AA%E0%A4%B9%E0%A4%B2%E0%A5%87_%E0%A4%95%E0%A4%BE_%E0%A4%8F%E0%A4%95_%E0%A4%A6%E0%A4%BF%E0%A4%A8_/_%E0%A4%B8%E0%A5%81%E0%A4%B6%E0%A5%80%E0%A4%B2_%E0%A4%95%E0%A5%81%E0%A4%AE%E0%A4%BE%E0%A4%B0_%E0%A4%9D%E0%A4%BE_/_%E0%A4%9C%E0%A5%80%E0%A4%B5%E0%A4%A8%E0%A4%BE%E0%A4%A8%E0%A4%82%E0%A4%A6_%E0%A4%A6%E0%A4%BE%E0%A4%B8&feed=atom&action=historyआठ साल पहले का एक दिन / सुशील कुमार झा / जीवनानंद दास - अवतरण इतिहास2024-03-28T09:16:37Zविकि पर उपलब्ध इस पृष्ठ का अवतरण इतिहासMediaWiki 1.24.1http://kavitakosh.org/kk/index.php?title=%E0%A4%86%E0%A4%A0_%E0%A4%B8%E0%A4%BE%E0%A4%B2_%E0%A4%AA%E0%A4%B9%E0%A4%B2%E0%A5%87_%E0%A4%95%E0%A4%BE_%E0%A4%8F%E0%A4%95_%E0%A4%A6%E0%A4%BF%E0%A4%A8_/_%E0%A4%B8%E0%A5%81%E0%A4%B6%E0%A5%80%E0%A4%B2_%E0%A4%95%E0%A5%81%E0%A4%AE%E0%A4%BE%E0%A4%B0_%E0%A4%9D%E0%A4%BE_/_%E0%A4%9C%E0%A5%80%E0%A4%B5%E0%A4%A8%E0%A4%BE%E0%A4%A8%E0%A4%82%E0%A4%A6_%E0%A4%A6%E0%A4%BE%E0%A4%B8&diff=210641&oldid=prevSharda suman: '{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=जीवनानंद दास |अनुवादक=सुशील कुमा...' के साथ नया पृष्ठ बनाया2016-09-05T19:45:18Z<p>'{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=जीवनानंद दास |अनुवादक=सुशील कुमा...' के साथ नया पृष्ठ बनाया</p>
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|रचनाकार=जीवनानंद दास<br />
|अनुवादक=सुशील कुमार झा<br />
|संग्रह=महापृथ्वी / जीवनानंद दास<br />
}}<br />
{{KKCatKavita}}<br />
<poem><br />
काली अँधेरी रात थी फाल्गुन की <br />
पंचमी का चाँद भी डूब चुका था तब, <br />
मरना तो उसे था ही, <br />
सुना है <br />
कल रात पोस्टमॉर्टेम के लिए ले गये उसे।<br />
<br />
पास ही लेटी थी पत्नी और बच्चा भी था, <br />
बिखरी थी चाँदनी चारों ओर, और था प्रेम, और थी आशा, <br />
फिर भी ना जाने क्यों आया था नजर उसे एक भूत?<br />
खुल गई थी आँखें उसकी या फिर बरसों से सोया ही नहीं था वह, <br />
सोया हुआ है जो अब भयावह शवगृह के इस सुनसान अंधकार में।<br />
<br />
क्या ऐसी ही नींद चाहा था उसने? <br />
अँधेरे नम बसबसाते कमरे में सोया पड़ा है आज, <br />
प्लेग से रक्तरंजित ढलके गरदन वाले चूहे जैसा, <br />
कभी नहीं जागने के लिए।<br />
<br />
“कभी उठोगे नहीं क्या <br />
ज़िंदगी का असह्य भार और वेदना <br />
और नहीं झेलोगे क्या?”<br />
उसकी खिड़की से झाँक कर निःस्तब्धता ने <br />
पूछा था, जब <br />
चाँद भी हो चुका था विलीन उस जटिल अन्धकार में।<br />
<br />
उल्लू तो सोने की तैयारियों में लग चुका था, <br />
गली में टर्राता मेढ़क मगर मांग रहा था दो मुहूर्त और, <br />
सुबह की लाली दस्तक देने जा रही थी उसी अनुराग से, <br />
और मैं झेल रहा था चारों ओर से मसहरी का क्षमाहीन विरोध, <br />
जो दिख ही नहीं रहा था इस धुंधले निरुद्देश्य अंधकार में, <br />
मच्छर लेकिन तब भी जाग रहा था जीवन स्रोत की चाह में। <br />
<br />
आकाश घनिष्ठ हो उठा और भी, मानो कोई एक विकीर्ण जीवन <br />
नचा रहा हो उँगलियों पर उसके मन को, <br />
दूर किसी बच्चे के हाथों में फंस कर मौत से लड़ते झींगुर का क्रंदन, <br />
चाँद भी डूब गया, <br />
और इस विचित्र अंधियारे में, तुम, <br />
हाथों में पाश लिए खड़ी हो, एकाकी, उसी पीपल तले, <br />
जानती हुई भी कि झींगुर, पक्षी और मानव एक नहीं हैं।<br />
<br />
पीपल की शाखों ने किया नहीं विरोध? <br />
हरे नर्म झूमते पत्तों से झाँककर किया नहीं प्रतिकार जुगनूओं ने? <br />
गंध के सहारे ही ढूंढ कर पूछा नहीं था उल्लुओं ने – “बूढ़ा चाँद <br />
तो बह गया बाढ़ में, चलो एक-दो चूहे ही पकड़ें”?<br />
चीख कर बताया तो नहीं था उसी ने ये दर्दनाक खबर? <br />
<br />
जीवन का ये आस्वाद, <br />
पतझड़ की किसी शाम में महकता जौ, <br />
सह नहीं सके ना? <br />
अब इस शवगृह में आराम से तो हो? <br />
इस शवगृह के दमघोंटू अन्धकार में <br />
रक्तरंजित होंठ और चपटे माथे वाले किसी चूहे की तरह।<br />
<br />
सुनो, <br />
मृत्यु की कहानी फिर भी, <br />
व्यर्थ नहीं जाता कभी किसी नारी का प्रणय और <br />
विवाहित जीवन की साध, <br />
समय के साथ आती है पत्नी और <br />
फिर मधुबर्षा, <br />
कभी कांपा नहीं जो शीत और भूख की वेदना से, <br />
आज लेटा है <br />
इस शवगृह में, <br />
चित किसी टेबल पर <br />
<br />
जानता हूँ, <br />
हाँ, मैं जानता हूँ, <br />
नारी मन में,<br />
प्रेम, वात्सल्य, घर, नव परिधान, <br />
अर्थ, कीर्ति, और आराम ही सब कुछ नहीं है, <br />
इससे अलग भी कुछ है, <br />
जो हमारे अंदर खेलता है, <br />
और कर देता है हमें <br />
क्लांत, <br />
और क्लांत, <br />
और भी क्लांत। <br />
<br />
आज इस शवगृह में नहीं है वो क्लांति, <br />
तभी तो आज लेटा है वह चित किसी टेबल पर यहाँ। <br />
<br />
फिर भी रोज रात देखता हूँ मैं, <br />
एक बूढ़ा उल्लू बैठता है पीपल की डालों पर, <br />
पलकें झपकाता है और कहता है – “चाँद तो लगता है बह गया बाढ़ में, <br />
अच्छा है, <br />
चलो पकड़ें एकाध चूहे को ही”।<br />
<br />
वो बूढ़ी नानी, आज भी वैसी ही है, <br />
मैं भी हो जाऊंगा एक दिन उसकी तरह, <br />
डूबा दूँगा इस बूढ़े चाँद को तब किसी चक्रवात में।<br />
<br />
और फिर चलें जायेंगे हम दोनों, <br />
शून्य कर <br />
इस प्रिय संसार को।<br />
</poem></div>Sharda suman