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आत्महत्या / रचना दीक्षित

व्यथित होती हूँ
जब पढ़ती हूँ
समाज में व्याप्त व्यभिचार
तनाव, बेचैनी, हताशा
भाग दौड में जीवन हारते लोग
हर रोज कितनी ही आत्महत्याएं
पुलिस, तहकीकात, शोक सभाएं
मेरे घर में भी हुईं
कल कुछ आत्महत्याएं
हैरान हूँ, शोकाकुल हूँ
असमंजस में हूँ
बन जाती हूँ
कभी पुलिस,
कभी फोरेंसिक एक्सपर्ट,
कभी फोटोग्राफर
देखती हूँ हर कोने से
उठाती हूँ खून के नमूने
सहेजती हूँ बिखरे अवशेषों को
नहीं जानती कोई कारण इसका
मेरी बेरुखीअनदेखी
या व्यस्तता
पर हां ये सच है
मेरे दिल में रची बसी
मेरी करीबी कुछ किताबों ने
मेरी ही अलमारी की
तीसरी मंजिल से कूद कर
आत्म हत्या कर ली