Last modified on 2 नवम्बर 2019, at 14:36

आत्म छलना -2 / स्वदेश भारती

अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 14:36, 2 नवम्बर 2019 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=स्वदेश भारती |अनुवादक= |संग्रह= }} {{KK...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

सम्बन्धों का छलना मनुष्य को
जीवन में अराजक बना देता है
वह नहीं कर पाता
भले और बुरे का निर्णय
न्याय का अधिकार
मस्तिष्क की प्रवँचना के अन्धेरे तलघर में
दुबककर बैठ जाता है
अन्याय के घटाटोप अन्धकार से आच्छादित करता है ।

ऐसे में व्यक्ति सिर्फ बोलता है
अकमर्णता के कगार से फिसलकर
गहरी खाई में गिरता है
सच्चाई के रंग में विष घोलता है
फिर भी अपने हृदय  में
वादा-फ़रोशी के कई रँग मिलाता है
तब उसकी नियति खोट बन जाती है ।

मनुष्य कर्म और अकर्म का पैमाना है
व्यक्ति का समष्टि के प्रति सेवाभाव
बस, एक बहाना है
वह अपनी अनीतिधर्मा नीयत का आजन्म
बिखराव सहता है
उसके लिए मानव धर्म
सिर्फ मानसिक ताना बाना है ।

कोलकाता, 2 अप्रैल 2014