भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
आत्म छलना -4 / स्वदेश भारती
Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 14:44, 2 नवम्बर 2019 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=स्वदेश भारती |अनुवादक= |संग्रह= }} {{KK...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)
भागता है ऊदबिलाव
जनतन्त्र के बिल से निकलकर
जनादेश के लिए जनलुभावन रूप दिखाता
पक्ष-विपक्ष की सेनाओं के बीच
आत्मसत्ता का महाभारत-युद्ध रचता
बार-बार अपने अहम् के रथ पर बैठ
दूर-दूर वार करता
किन्तु अविवेक से लड़ा गया युद्ध हारता
जनमत-सँघर्ष में घायल
अपनी बिल में घुसकर बैठ जाता
ऊद बिलाव बार-बार जीर्ण-शीर्ण,
जनतन्त्र के गलियारे से चलकर
भव्य राजपथ पर पहुँच जाता
जिसके अन्तिम छोर पर जल रहा आज़ादी का अलाव
पास में सत्ता की कुर्सी ख़ाली पड़ी है
जो आदमी की आत्मसत्ता से बड़ी है
और उसी के लिए तो भागता सरपट, झटपट रँग बदलता
और तरह-तरह से बदलता हाव-भाव
लोकतन्त्र का ऊदबिलाव
कोलकाता, 5 अप्रैल 2014