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Kavita Kosh से
नहीं होते आदमखोर
पौराणिक पात्र
या, कवि की
कल्पना की फसल,
उनके अंडे-बच्चे
नहीं छिपाते --बारूद वे ठिठुरते-पसीजते
पेट-पीठ सटे
राष्ट्र की घुनियाई नींव में,
गिरती धारा पर
अपना जूठा पानी पिलाते
मौत की फब्तियों से
नहीं हड़काते वे.