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आदमी खजूर हो गए / तारादत्त निर्विरोध

 

आदमी खजूर हो गए
दूर और दूर हो गए

कल मिले इनाम जो हमें
आज वो कुसूर हो गए

दर्द हैं कबीर जायसी
गीत-राग सूर हो गए

मुक्ति तो हमें मिली मगर
हम ऋणी ज़रूर हो गए

पाँव देख रो पड़े हमीं
जिस घड़ी मयूर हो गए

छल कपट उदार हैं सभी
क्योंकि सत्य क्रूर हो गए

पारसा नहीं रहे वहाँ
महफ़िलों के नूर हो गए

निर्विरोध हम कहाँ रहे
लक्ष्य जब हुज़ूर हो गए