भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

"आदमी जैसे हो कुछ अजगरों के बीच / प्रकाश बादल" के अवतरणों में अंतर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
(नया पृष्ठ: आदमी जैसे हो कुछ अजगरों के बीच। चंदन सी ज़िंदगी है विषधरों के बीच…)
 
पंक्ति 1: पंक्ति 1:
 +
 +
{{KKGlobal}}
 +
{{KKRachna
 +
|रचनाकार=गिरधर गोपाल
 +
|संग्रह=
 +
}}
 +
{{KKCatGeet}}
 +
<poem>
  
 
आदमी जैसे हो कुछ अजगरों के बीच।
 
आदमी जैसे हो कुछ अजगरों के बीच।

11:53, 23 जून 2010 का अवतरण


आदमी जैसे हो कुछ अजगरों के बीच।
चंदन सी ज़िंदगी है विषधरों के बीच।

ये, वो, मैं, तू हैं सब तमाशबीन,
लहूलुहान सिसकियां हैं खंजरों के बीच।

शहर के मज़हब से नावाकिफ़ अंजान वो,
बातें प्यार की करे कुछ सरफिरों के बीच।

भरी सभा में द्रौपदी-सा चीख़े मेरा देश,
कब आओगे कृष्ण इन कायरों के बीच।

ख़ुद ही अब बताएंगे कि हम ख़ुदा नहीं,
आज गुफ़्तगू हुई ये पत्थरों के बीच।

आंसू इसलिये आंख से छलकाता नहीं मैं,
कुछ मछलियां भी रहतीं हैं सागरों की बीच।