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आदमी / प्रशांत विप्लवी

आदमी...
लाख उल्लास मना ले
दिन के अंत में
रेजगारी की तरह
बचाकर रखता है थोडा-सा मलाल

भोगे सुख का एक कतरा
जीभ पर फिराकर
करता है लम्बी प्रतीक्षा
अनिश्चित अगले उल्लास तक

उसे अच्छा लगता है
उल्लास के लिए तत्पर उसकी बनावटी हंसी
जो ढककर रखता है
उसकी सावशेष मजबूरियां

एक परत जो खुलने लगता है
उससे कितना अनजान होता है वो आदमी
कि निकलता है आदमी के अन्दर से एक आदमी