दिन में सूरज की रौशनी
रात में बिजली की चकाचौंध
आख़िर अंधेरा !
जाए तो जाए किधर ?
सिमटकर
दुबक गया अंधेरा
आदमी के अन्दर
और
आहिस्ता-आहिस्ता
दीमक बनकर-
शख़्सियत
वो
इंसानियत को
निगलता जा रहा है!
आदमी
अब आदमी नहीं........
बस !
लाश बनता जा रहा है !