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"आदि अनादि अनंत अखंड / हनुमानप्रसाद पोद्दार" के अवतरणों में अंतर

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(राग भैरवी-ताल कहरवा)
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(राग भैरव-ताल कहरवा)
  
जय शिवशंकर औढरदानी। जय गिरितनया मातु भवानी॥-१॥
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आदि अनादि अनंत अखंड अभेद अखेद सुबेद बतावैं।
सर्वोत्तम योगी योगेश्वर। सर्वलोक-‌ईश्वर-परमेश्वर॥-२॥
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  अलख अगोचर रूप महेस कौ जोगि जती-मुनि ध्यान न पावैं॥
सब उर-प्रेरक सर्वनियन्ता। उपद्रष्टस्न भर्ता अनुमन्ता॥-३॥
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  आगम-निगम-पुरान सबै इतिहास सदा जिनके गुन गावैं।
पराशक्ति-पति अखिल विश्वपति।  परब्रह्मा परधाम परमगति॥-४॥
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  बड़भागी नर-नारि सो‌ई जो सांब-सदासिव कौं नित ध्यावैं॥-१॥
सर्वातीत अनन्य सर्वगत। निज स्वरूप महिमामें स्थित रत॥-५॥
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अन्ग भूति-भूषित श्मशानचर।  भुजंगभूषण चन्द्रमुकुटधर॥-६॥
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  सृजन-सुपालन लय-लीला हित जो विधि-हरि-हर रूप बनावैं।
वृषवाहन नन्दीगणनायक। अखिल विश्वके भाग्य-विधायक॥-७॥
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  एकहि आप विचित्र अनेक सुबेष बना‌इ कैं लीला रचावैं॥
व्याघ्र-चर्म परिधान मनोहर। रीछचर्म ओढे गिरिजावर॥-८॥
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  सुंदर सृष्टि सुपालन करि जग पुनि बन काल जु खाय पचावैं।
कर त्रिशूल डमरूवर राजत। अभय वरद मुद्रा शुभ साजत॥-९॥
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  बड़भागी नर-नारि सो‌ई जो सांब-सदासिव कौं नित ध्यावैं॥-२॥
तनु कर्पूर-गौर उज्ज्वलतम।  पिंगल जटाजूट सिर उाम॥-१०॥
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भाल त्रिपुण्ड मुण्डमालाधर। गल रुद्राक्ष माल शोभाकर॥-११॥
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  अगुन अनीह अनामय अज अविकार सहज निज रूप धरावैं।
विधि-हरि-रुद्र त्रिविध वपुधारी। बने सृजन-पालन-लयकारी॥-१२॥
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  परम सुरय बसन-‌आभूषन सजि मुनि-मोहन रूप करावैं॥
तुम हो नित्य दयाके सागर। आशुतोष आनन्द-‌उजागर॥-१३॥
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  ललित ललाट बाल-बिधु विलसै रतन-हार उर पै लहरावैं।
अति दयालु भोले भण्डारी। अग-जग सबके मंगलकारी॥-१४॥
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  बड़भागी नर-नारि सो‌ई जो सांब-सदासिव कौं नित ध्यावैं॥-३॥
सती पार्वतीके प्राणेश्वर।  स्कन्द गणेश-जनक शिव सुखकर॥-१५॥
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हरि-हर एक रूप गुण-शीला। करत स्वामि-सेवककी लीला॥-१६॥
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अंग विभूति रमाय मसान की विषमय भुजगनि कौं लपटावैं।
रहते दो‌उ पूजत पुजवावत। पूजा पद्धति सबन्हि सिखावत॥-१७॥
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  नर-कपाल कर, मुंडमाल, गल, भालु-चरम सब अंग उढ़ावैं॥
मारुति बन हरि सेवा कीन्ही। रामेश्वर बन सेवा लीन्ही॥-१८॥
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  घोर दिगंबर, लोचन तीन भयानक देखि कैं सब थर्रावैं।
जग-हित घोर हलाहल पीकर।  बने सदाशिव नीलकण्ठ वर॥-१९॥
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  बड़भागी नर-नारि सो‌ई जो सांब-सदासिव कौं नित ध्यावैं॥-४॥
असुरासुर शुचि वरद शुभंकर। असुरनिहन्ता प्रभु प्रलयंकर॥-२०॥
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‘नमः शिवाय’ मन्त्र पञ्चाक्षर। जपत मिटत सब क?ेश भयंकर॥-२१॥
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सुनतहि दीन की दीन पुकार दयानिधि आप उबारन धावैं।
जो नर-नारि रटत शिव-शिव नित।  तिनको शिव अति करत परम हित॥-२२॥
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  पहुँच तहाँ अबिलंब सुदारुन मृत्यु को मर्म विदारि भगावैं॥
श्रीकृष्णतप कीन्हों भारी।  ह्वै प्रसन्न वर दियो पुरारी॥-२३॥
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  मुनि मृकंञ्डु-सुत की गाथा सुचि अजहुँ बिग्यजन गा‌इ सुनावैं।
अर्जुन संग लड़े किरात बन।  दियो पाशुपत अस्त्र मुदित मन॥-२४॥
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बड़भागी नर-नारि सो‌ई जो सांब-सदासिव कौं नित ध्यावैं॥-५॥
भक्तञ्नके सब कष्ट निवारे। दे निज भक्ति सबन्हि उद्धारे॥-२५॥
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शङ्खचूड़-जालन्धर मारे। दैत्य असं?य प्राण हर तारे॥-२६॥
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चा‌उर चारि जो ड्डूल धतूर के, बेल के पात औ पानि चढ़ावैं।
अन्धकको गणपति पद दीन्हों। शुक्र शुक्रपथ बाहर कीन्हों॥-२७॥
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  गाल बजाय कै बोल जो ‘हरहर महादेव’ धुनि जोर लगावैं॥
तेहि संजीवनि विद्या दीन्हीं।  बाणासुर गणपति-गति कीन्हीं॥-२८॥
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  तिनहिं महाफल देय सदासिव सहजहि भुक्ति-मुक्ति सो पावैं।
अष्टस्न्मूर्ति पञ्चानन चिन्मय।  द्वादश ज्योतिलिन्ग ज्योतिर्मय॥-२९॥
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  बड़भागी नर-नारि सो‌ई जो सांब-सदासिव कौं नित ध्यावैं॥-६॥
भुवन चतुर्दश व्यापक रूञ्पा।  अकथ अचिन्त्य असीम अनूपा॥-३०॥
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काशी मरत जन्तु अवलोकी। देत मुक्ति-पद करत अशोकी॥-३१॥
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बिनसि दोष दुख दुरित दैन्य दारिद्र्‌य नित्य सुख-सांति मिलावैं।
भक्त भगीरथकी रुचि राखी। जटा बसी गङङ्गा सुर साखी॥-३२॥
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  आसुतोष हर पाप-ताप सब निरमल बुद्धि-चिा बकसावैं॥
रुरु अगस्त्य उपमन्यू ज्ञानी। ऋञ्षि दधीचि आदिक विज्ञानी॥-३३॥
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  असरन-सरन काटि भव-बंधन भव निज भवन भव्य बुलवावैं।
शिवरहस्य शिवज्ञान-प्रचारक।  शिवहिं परम प्रिय लोकोद्धारक॥-३४॥
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  बड़भागी नर-नारि सो‌ई जो सांब-सदासिव कौं नित ध्यावैं॥-7॥
इनके शुभ सुमिरनतें शंकर।  देत मुदित ह्वै अति दुर्लभ वर॥-३५॥
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अति उदार करुणावरुणालय।  हरण दैन्य दारिद्र्‌य-दुःख-भय॥-३६॥
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औढरदानि, उदार अपार जु नैकु-सी सेवा तें ढुरि जावैं।
तुहरो भजन परम हितकारी। विप्र शूद्र सब ही अधिकारी॥-३७॥
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  दमन असांति, समन सब संकट, विरद बिचार जनहि अपनावैं॥
बालक-वृद्ध नारि-नर ध्यावहिं। ते अलय शिवपदको पावहिं॥-३८॥
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  ऐसे कृपालु कृपामय देब के? यों न सरन अबहीं चलि जावैं।
भेदशून्य तुम सबके स्वामी। सहज सुहृद सेवक-‌अनुगामी॥-३९॥
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  बड़भागी नर-नारि सो‌ई जो सांब-सदासिव कौं नित ध्यावैं॥-८॥
जो जन शरण तुहारी आवत।  सकल दुरित तत्काल नशावत॥-४०॥
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21:28, 29 अक्टूबर 2016 के समय का अवतरण

(राग भैरव-ताल कहरवा)

आदि अनादि अनंत अखंड अभेद अखेद सुबेद बतावैं।
 अलख अगोचर रूप महेस कौ जोगि जती-मुनि ध्यान न पावैं॥
 आगम-निगम-पुरान सबै इतिहास सदा जिनके गुन गावैं।
 बड़भागी नर-नारि सो‌ई जो सांब-सदासिव कौं नित ध्यावैं॥-१॥

 सृजन-सुपालन लय-लीला हित जो विधि-हरि-हर रूप बनावैं।
 एकहि आप विचित्र अनेक सुबेष बना‌इ कैं लीला रचावैं॥
 सुंदर सृष्टि सुपालन करि जग पुनि बन काल जु खाय पचावैं।
 बड़भागी नर-नारि सो‌ई जो सांब-सदासिव कौं नित ध्यावैं॥-२॥

 अगुन अनीह अनामय अज अविकार सहज निज रूप धरावैं।
 परम सुरय बसन-‌आभूषन सजि मुनि-मोहन रूप करावैं॥
 ललित ललाट बाल-बिधु विलसै रतन-हार उर पै लहरावैं।
 बड़भागी नर-नारि सो‌ई जो सांब-सदासिव कौं नित ध्यावैं॥-३॥

अंग विभूति रमाय मसान की विषमय भुजगनि कौं लपटावैं।
 नर-कपाल कर, मुंडमाल, गल, भालु-चरम सब अंग उढ़ावैं॥
 घोर दिगंबर, लोचन तीन भयानक देखि कैं सब थर्रावैं।
 बड़भागी नर-नारि सो‌ई जो सांब-सदासिव कौं नित ध्यावैं॥-४॥

सुनतहि दीन की दीन पुकार दयानिधि आप उबारन धावैं।
 पहुँच तहाँ अबिलंब सुदारुन मृत्यु को मर्म विदारि भगावैं॥
 मुनि मृकंञ्डु-सुत की गाथा सुचि अजहुँ बिग्यजन गा‌इ सुनावैं।
 बड़भागी नर-नारि सो‌ई जो सांब-सदासिव कौं नित ध्यावैं॥-५॥

चा‌उर चारि जो ड्डूल धतूर के, बेल के पात औ पानि चढ़ावैं।
 गाल बजाय कै बोल जो ‘हरहर महादेव’ धुनि जोर लगावैं॥
 तिनहिं महाफल देय सदासिव सहजहि भुक्ति-मुक्ति सो पावैं।
 बड़भागी नर-नारि सो‌ई जो सांब-सदासिव कौं नित ध्यावैं॥-६॥

बिनसि दोष दुख दुरित दैन्य दारिद्र्‌य नित्य सुख-सांति मिलावैं।
 आसुतोष हर पाप-ताप सब निरमल बुद्धि-चिा बकसावैं॥
 असरन-सरन काटि भव-बंधन भव निज भवन भव्य बुलवावैं।
 बड़भागी नर-नारि सो‌ई जो सांब-सदासिव कौं नित ध्यावैं॥-7॥

औढरदानि, उदार अपार जु नैकु-सी सेवा तें ढुरि जावैं।
 दमन असांति, समन सब संकट, विरद बिचार जनहि अपनावैं॥
 ऐसे कृपालु कृपामय देब के? यों न सरन अबहीं चलि जावैं।
 बड़भागी नर-नारि सो‌ई जो सांब-सदासिव कौं नित ध्यावैं॥-८॥