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आधार / मनोज कुमार झा

मैने कपड़े माँगे, शीत से अस्थियों की आँख अंधी हो गई थी
मैने रोटी माँगी, भूख अकेली आँत में साँप की तरह नाचती थी
मैने चप्पल माँगी, घर बहुत दूर था रास्ते में चीटियाँ और काँटे असंख्य
मैने भीख नहीं माँगी
आप जो भी कहें, मैने भीख नहीं माँगी
मैने इस पृथ्वी पर होने का आधार माँगा ।