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आधी रात को सारा आलम सोता है / डी. एम. मिश्र

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आधी रात को सारा आलम सोता है
एक परिन्दा डाल पे तन्हा रोता है

कितने दर्द पराये, कितने अपने हैं
कोई फ़र्क़ नहीं वो सबको ढोता है

मुश्किल हो जाता तब दिल को समझाना
बदली में जब चाँद सुहाना होता है

कब समझेगा सच्चाई इन्सान मगर
पाने की लालच में क्या-क्या खोता है

एक बुरे इन्सान की बस इतनी पहचान
बेमतलब वो राह में काँटे बोता है

रात बड़ी लंबी हो जाती कभी-कभी
यह भी सच है मगर सबेरा होता है