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आपने जुमले गढ़े, वादा समझ बैठे थे हम / समीर परिमल

आपने जुमले गढ़े, वादा समझ बैठे थे हम
इश्क़ में पीतल को भी सोना समझ बैठे थे हम

बेख़ुदी में आपको क्या क्या समझ बैठे थे हम
यूँ समझिए धूप को साया समझ बैठे थे हम

जब भी देखा, ताज़गी और दिलकशी बढ़ती गई
आइने को आपका चेहरा समझ बैठे थे हम

आपसे होकर जुदा कैसे कटेगी ज़िन्दगी
आपको इस रूह का हिस्सा समझ बैठे थे हम

दायरे में दिल के अपने क़ैद थे इक उम्र से
इस दरो-दीवार को दुनिया समझ बैठे थे हम

वो तरस खाकर हमारे ज़ख़्म सहलाते रहे
बदगुमानी में इसे रुतबा समझ बैठे थे हम

याद है अबतक हमें उस रात की जादूगरी
नींद में भोपाल को पटना समझ बैठे थे हम