Last modified on 23 सितम्बर 2010, at 10:45

आप उन्ही का दम भरते हैं/ सर्वत एम जमाल

द्विजेन्द्र द्विज (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 10:45, 23 सितम्बर 2010 का अवतरण

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

आप उन्हीं का दम भरते हैं
जो उखड़े उखड़े रहते हैं
 
खौफ तपिश का हमको कैसा
रोज ही शोलों पर चलते हैं

धूप ने कैसी आग लगाई
गाँव ,नगर ,पनघट जलते हैं

क्या देखा है इन बच्चों ने
क्यों सहमें सहमें लगते हैं

पेड़ को मौत नहीं आती है
पत्ते रोज गिरा करते हैं

आप अलग बैठे दुनिया से
लेकिन कितने दिन बचते हैं

सर्वत जीवन फिर जीवन है
दुःख-सुख हम भी तो सहते हैं