भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

आमाल से मैं अपने बहुत बेख़बर चला / सौदा

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज


आमाल<ref>कर्मों</ref> से मैं अपने बहुत बेख़बर चला
आया था आह किसलिए और क्या मैं कर चला

है फ़िक्रे-वस्ल<ref> मिलन की चिंता</ref> सुब्ह' तो अंदोहे-हिज्र<ref>वियोग का दुख</ref> शाम
इस रोज़ो-शब<ref>दिन-रात</ref> के धंधे में अब मैं तो मर चला

निकले पड़े है जामा से कुछ इन दिनों रक़ीब
थोड़े से दम-दिलासे में कितना उफर चला

चलने का मुझको घर से तिरे कुछ नहीं है ग़म
औरों से गो मैं इक-दो क़दम पेशतर<ref>आगे </ref> चला

क्या इस चमन में आन के ले जायेगा कोई
दामन को मेरे सामने गुल झाड़कर चला

भेजा है वो पयाम मैं उस शोख़ को कि आज
कर ख़िज़्रे-राह<ref>मार्गदर्शक</ref> मर्ग<ref>मृत्यु</ref> को पैग़ाम्बर<ref>सन्देशवाहक
</ref> चला

तूफ़ाँ भरे था पानी जिन आँखों के सामने
आज अब्र<ref>बादल </ref> उनके आगे ज़मीं करके तर चला

'सौदा' रखे था यार से यक-मू<ref>ज़रा-सा भी</ref> नहीं ग़रज़
ऊधर<ref>उधर</ref> खुली जो ज़ुल्फ़, इधर दिल बिखर चला
 

शब्दार्थ
<references/>