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आलता / सिद्धेश्वर सिंह

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इसे महावर कहूँ
या महज चटख सुर्ख रंग
उगते-डूबते सूरज की आभा
वसन्त का मानवीकरण
या कुछ और ।
खँगाल डालूँ शब्दकोश का एक-एक पृष्ठ
भाषा-विज्ञानियों के सत्संग में
शमिल हो सुनूँ
इसके विस्तार और विचलन की कथा के कई अध्याय
क्या फ़र्क़ पड़ता है !

फ़र्क़ पड़ता है
इससे
और..और दीपित हो जाते हैं तुम्हारे पाँव
इससे सार्थक होती है संज्ञा
विशिष्ट हो जाता है विशेषण
पृथ्वी के सादे काग़ज़ पर
स्वत: प्रकाशित होने को
अधीर होती जाती है तुम्हारी पदचाप ।

आलता से याद आती हैं कुछ चीज़ें
कुछ जगहें
कुछ लोग
कुछ स्वप्न
कुछ लगभग भुला से दिए गए दिन
और कुछ-कुछ अपने होने के भीतर का होना ।

फ़र्क़ पड़ता है
आलता से और सुन्दर होते हैं तुम्हारे पाँव
और दिन-ब-दिन
बदरंग होती जाती दुनिया का
मैं एक रहवासी
ख़ुद से ही चुराता फिरता हूँ अपनी आँख ।

यह किसी मुहावरे का वाक्य प्रयोग नहीं है प्रिय
न ही किसी वाक्यांश के लिए एक शब्द
न ही किसी शब्द का अनुलोम-विलोम
कोई सकर्मक-अकर्मक क्रिया भी नहीं।

क्या फ़र्क़ पड़ता है
इसी क्रम में अगर यह कहूँ --
तुम हो बस तुम
आलता रचे अपने पाँवों से
प्रेम की इबारत लिखती हुई
लेकिन यह मैं नहीं
यह आलता सिर्फ़ आलता भी नहीं
और हाँ, यह सब कुछ सम्भवत: कविता भी नहीं ।