भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

आवती चली है यह, विषम बयारि देखि / द्विज

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

आवती चली है यह, विषम बयारि देखि,
दबे-दबे पांइन, किवारिन लरजि दै।
क्वैलिया कलंकिनि को दै री समुझाई,
मधुमाती मधुपालिनी, कुचालिनि तरजि दै॥

आज ब्रज रानी के बियोग कौ दिवस तातें,
हरें-हरे कीर, बकवादिन हरजि दै॥

पी-पी के पुकारिबे कौं, खोलैं ज्यों न जीहन त्यौं
बावरी पपीहनके जूहन बरजि दै।
भूले-भूले भौर बन, भांवरैं भरैंगे कहूं,
फूलि-फूलि किसकु, जके से रहि जाइहैं।
द्विजदेव की सौं वह, कूजानि बिसारि कूर,
कोकिल कलंकी, ठौर-ठौर पछिताइहैं॥

आवत बसंत के, न ऐहैं जो स्याम तो पै,
बावरी बलाय सों, हमारें उपाइ है।
पीहैं पहिले ही तें, हलाहल मंगाइ, या
कलनिधि की एकौ कला, चलन न पाइहै॥