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आवत मैँ सपने हरि को लखि / मतिराम

आवत मैँ सपने हरि को लखि नैसुक बाँट सँकोचन छोड़ी ।
आगे ह्वै आड़े भए मतिराम मँहू चितयोँ चित लालच ओड़ी ।
होठन को रस लेन को आलि री मेरी गही कर काँपत ठोड़ी ।
और भई न सखी कछु बात गई इतने ही मे नीँद निगोड़ी ॥


मतिराम का यह दुर्लभ छन्द श्री राजुल महरोत्रा के संग्रह से उपलब्ध हुआ है।