भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

आव मरवण, आव ! / पारस अरोड़ा

Kavita Kosh से
Neeraj Daiya (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 04:40, 9 जनवरी 2011 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार= पारस अरोड़ा |संग्रह= }}‎ {{KKCatKavita‎}}<poem>आव मरवण, आव ! एक…)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

आव मरवण, आव !
एकर फेरूं
सगळी रामत
पाछी रमल्यां ।
एकर फेरूं चौपड़-पासा
लाय बिछावां ।
ओळूं री ढिगळी नै कुचरां
रमां रमत रमता ई जावां
नीं तूं हारै, नीं म्हैं हारूं
आज बगत नै हार बतावां
आव,
मरवण एकर फेरूं आव !
सामौसाम बैठजा म्हारै
बोल सारियां किसै रंग री
तूं लेवैला,
पैली पासा कुण फैंकेला ?

आ चौपड़, ऐ पासा कोडियां
जमा गोटियां पैंक कोडियां
पौ बारा पच्चीस लगावां
म्हैं मारूं थारी सारी नै
म्हारी गोट छोडजै मत ना
तोड़ करां अर तोड़ करावां
चीरै-चीरै भेळै बैठां
मैदानां में फोड़ करावां
होड जतावां
कोडी अर गोटी रै बिच्चै
हाथ हथेळी आंगळियां
जादू उपजावां
ऐसौ खेल खेलता जावां
दोनूं जीतां, दोनूं हारां
काढ़ वावड़ी खेल बधावां ।
एकर मरवरण आव !