Last modified on 26 अगस्त 2017, at 18:30

आशाएँ / अर्चना कुमारी

कभी हल नहीं होते
कुछ प्रश्न
चुप्पियाँ मातम मनाती हैं
चीखों का
जैसे धुधुआती आग फूँकती चिता
तोड़ती है मरघट का सन्नाटा
चटकती हड्डियों का अगीत लेकर

अतृप्त आत्माएँ.....
भटकती हैं
देह के समकोणों में
लय-भंग मानस की विछिन्नता
संत्रास की आपदा से स्तब्ध
अवसन्न, तिर्यक श्वाँसें
ऊर्ध्वगामी गति के तल में
बचाए रखती हैं जिजीविषा
जीवन की.....

विपरीत परिस्थितियों में
सींचती है जीवटता
मुस्कुराना सीख जाता है मन
भींगी पलकों से..........
आशाएँ लिए.......!!!!