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आषाढ / संतोष श्रीवास्तव

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खिड़की के शीशों पर
अनवरत दस्तक देती हैं
आषाढ़ की बूँदें

धारासार बारिश में
दौड़ते शहर के पैरों में
बेड़ियां पहना
भय और रोमांच की जुगलबंदी
कराती हैं
आषाढ़ की बूँदें

लिखना चाहती हूँ
पर न भाव जुटते, न छंद
निरर्थक शब्दों के इक्का-दुक्का
पड़ाव आते हैं
मेघ के टुकड़े बन
फिर समा जाती हैं
अथाह मेरे अकेलेपन की मर्मर में
आषाढ़ की बूँदें

विरही यक्ष विचलित है
पहाड़ पर लोटते बादलों को देख
ढूंढना चाहता है दूत
जो यक्षिणी तक पहुंचा सके
विरह की वेदना
मिलते ही यक्ष को मेघदूत
थिरक उठती हैं
आषाढ़ की बूँदें

घन घटाओं से लैस
आषाढ़ का पहला दिन
शहतूत की कोंपलों पर
वनचंपा के पराग पर
मधुमालती की लचक पर
तिरती हैं
आषाढ़ की बूँदें

मेरी उंगलियों के बीच
फंसी है कलम
भावों की कुलबुलाहट में
छिटक जाती हैं
आषाढ़ की बूँदें

कलम माँग बैठती है
पानी नहीं ,आग आग चाहिए
ठिठक गई हैं जहाँ की तहाँ
आषाढ़ की बूँदें