परिन्दे!
क्यों आसमान तलाशता है
बित्ते भर पिंजड़े के आकाश को
छू कर सब्र, सब्र कर.
आदमी तो पिंजड़े जैसा ढूँढता फिरता है
छत मिलने से पहले
बढ़ते हैं तेज़ी से उसके पंख
बढ़ते हैं नाखून
लम्बी होती है जीभ
लेता है सपने सूरज निगलने के.
पिंजड़ा मिला नहीं
कि पंख किवाड़ के बाहर
मातमी धुन में दफ़नाए जाते हैं
शानदार आदमी
पिंजड़ों में जीते- मरते हैं.
आसमान तलाशना छोड़
परिन्दे .
चन्द मिर्ची कुतर
ठण्डा पानी पी
बोल राम! राम! राम!