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आह भरते खंडहर में / पंख बिखरे रेत पर / कुमार रवींद्र

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फूल भोले
क्या करें अंधे शहर में

एक काली झील में
डूबे रहे दिन
खुशबुओं की बात से
ऊबे रहे दिन

आँख-मूँदे
धूप लौटी दोपहर में

सीढियों पर आहटें हैं
ठोकरों की
चौखटें टूटी हुईं
सारे घरों की

शहद पीते
घोलकर सपने ज़हर में

बंद दरवाजे
हवाओं की तरफ के
कोठरी में कैद
साये हैं बरफ के

गीत
ठंडी आह भरते खण्डहर में