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आ गया वसन्त / सिद्धेश्वर सिंह

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शिशिर का हुआ नहीं अन्त
कह रही है तिथि कि आ गया वसन्त !

क्या पता कैलेन्डर को
सर्दी की मार क्या है ।
कोहरा कुहासा और
चुभती बयार क्या है ।
काटते हैं दिन एक-एक गिन
याद नहीं कुछ भी कि तीज क्या त्यौहार क्या है ।

वह तो एक कागज है निर्जीव निष्प्राण
हम जैसे प्राणियों के कष्ट हैं अनन्त ।

माना कि व्योम में
हैं उड़ रहीं पतंगें ।
और महाकुम्भ में
हो रहा हर गंगे ।
फिर भी हर नगर हर ग्राम में
कम नहीं हुईं अब भी जाड़े की तरंगें ।

बोलो ऋतुराज क्या करें हम आज
माँग रहे गर्माहट सब दिग-दिगन्त ।

माना इस समय को
जाना है जाएगा ही ।
यह भी यक़ीन है
कि मधुमास आएगा ही ।
फिर भी अभी और दिन भी
जाड़े का जाड़ापन ही जी भर जलाएगा ही ।

आओ ओस पोंछ दें पुष्पमय सवारी की
मठ से अब निकलेंगे वसन्त बन महन्त ।