Last modified on 18 नवम्बर 2014, at 00:30

आ साथी बढ़े चलें ! / कांतिमोहन 'सोज़'

आँखों में सुबह नई
पैरों से रौंदते हुए गई बोसीदा शामों को
आ साथी बढ़े चलें !
आ साथी आ
आ बढ़े चलें आ बढ़े चलें !!

मंज़िल दूर सही दिल तो मजबूर नहीं
राहों में दम लेना अपना दस्तूर नहीं
आवाज़ उठा अपनी कह दे उन बहरों से
नफ़रत से भरी दुनिया हमको मंज़ूर नहींI
साँसों में आग लिए
पैरों से रौंदते हुए गई बोसीदा शामों को
आ साथी बढ़े चलें !
आ साथी आ
आ बढ़े चलें आ बढ़े चलें !!

ये दिल तो करोड़ों हैं पर साथ धड़कते हैं
बाज़ू भी करोड़ों हैं पर साथ फड़कते हैं
आवाज़ उठा अपनी कह दे उन अन्धों से
हम लाखों अनलमुखी एक साथ भड़कते हैं I
गीतों में आग लिए
पैरों से रौंदते हुए गई बोसीदा शामों को
आ साथी बढ़े चलें !
आ साथी आ
आ बढ़े चलें आ बढ़े चलें !!

रचनाकाल : 1973