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इंक़लाब-ए-रूस / फ़ैज़ अहमद फ़ैज़

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(रूसी क्रान्ति की 50 वीं वर्षगाँठ पर)

मुर्ग़े-बिस्मिल के मानिंद<ref>घायल परिंदे की तरह</ref> शब तिलमिलाई
उफ़क-ता-उफ़क<ref>क्षितिज में</ref>
सुब्‍हे-महशर<ref>प्रलय का सवेरा</ref> की पहली किरन जगमगाई
तो तारीक आँखों से बोसीदा<ref>फटे-पुराने</ref> पर्दे हटाए गए
दिल जलाए गए
तबक़-दर-तबक़<ref>आसमानों में</ref>
आसमानों के दर
यूँ खुले हफ़्त अफ़लाक<ref>सात आसमान</ref> आईना से हो गए
शर्क़ ता ग़र्ब<ref>पूर्व से पश्चिम तक</ref> सब क़ैदख़ानों के दर
आज वा हो गए<ref>खुल गए</ref>
क़स्रे-जम्हूर<ref>जनतंत्र का महल</ref> की तरहे-नौ<ref>नई व्यवस्था</ref> के लिए
आज नक़्शे-कुहन<ref>पुराने चिह्न</ref> सब मिटाए गए
सीना-ए-वक़्त से सारे ख़ूनी कफ़न
आज के दिन सलामत<ref>सुरक्षित</ref> उठाए गए
आज पा-ए-ग़ुलामाँ में ज़ंज़ीरे-पा<ref>ग़ुलामों के पैरों में ज़ंजीर</ref>
ऐसी छनकी केः बाँगे-दिरा<ref>घंटे की आवाज़</ref> बन गई
दस्ते-मज़लूम<ref>अत्याचार सहनेवाले का हाथ</ref> में हथकड़ी की कड़ी
ऐसी चमकी केः तेग़े-क़ज़ा<ref>्मौत की तलवार</ref> बन गई

शब्दार्थ
<references/>