भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

इंटरनेट पर मेरा गांव / सत्यनारायण स्नेही

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

इंटरनेट पर
बच्चे ने जब देखा
अपना गांव
उसने ढूंढ निकाला
दादा का घर
पर ढूंढ नहीं पाया
अपने दादा को
वो बार बार खोजता रहा
घर के रास्ते
आंगन में गाय
बगीचे में सेब
चैराहे पर खेलते बच्चे
दादी का चूल्हा
उसमें पकती मक्की की रोटी
देसी राजमाह की दाल
बहुत कोशिश करने पर
उसे दिखती रही
सिर्फ़ घरों की छतें
नज़र आया
साफ सुथरा पूरा गांव
निहारता रहा उसको
महीनों लगातार
वह सोचने लगा
नहीं जाना पड़ेगा
अब उस गांव
जहां खानी पड़ती है
कच्चे रास्तों की धूल
गोबर की गंध
जहां खुलती है रात
सूर्योदय से पहले
खाने में मिलती है
लस्सी, दाल और

मक्की की रोटी
ज़रूरी हुआ तो
दादा से बतिया लेगें
कभी फोन पर
जब कभी होगा
गांव में तीज त्योहार
उसे मना लेगें यहीं
किसी बड़े होटल में
पीज़ा, बर्गर, कोल्ड ड्रिंक के साथ
और देखेगें
इंटरनेट पर
अपना साफ सुथरा गांव