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इंटरव्यू / प्रमोद कौंसवाल

दमघोंट भी होते हैं शानदार कमरे। बदलती हैं
परदे से दिखती पत्तियां धीरे-धीरे खिड़की से। बेमिसाल
लिखी कविताओं की तरह वे उजाला फेंकती
मेरी तरफ़। मेरी जिस दिमाग़दारी का पहले
मापना कहते थे उसे स्क्रीनिंग कहा गया। मुझसे कहा
नहीं गया पर वहां वो भी बैठे थे
तीन चार लोग करना चाहते थे वही काम
आपको करना होगा
जो अब तक नहीं किया। जो भी जानते हैं
आप उसके द्वन्द्व में तो रहें नहीं कतई।
बरबस एक अदृश्य टकराव चलता है
मेरे भीतर । वह कुछ इस तरह कि मैंने कहा मैं
फ़ुटबाल खेल सकता हूं तो वे मुझे शेयर बाज़ार का
हालचाल और परिणाम लाने के लिए भेजना चाहते थे।
नहीं हो सकता यह मैंने सांसों को छोड़कर कहा कुछ
कला जैसी कुछ बिडंनाओं पर मैं काम कर सकता हूं। लेकिन
वह उतारू थे इससे बेहतर कई काम हैं। आप डालडे, घी
वनस्पति बनाने वालों की लिस्ट लेकर आओ
ऐसे ही मैं निराशाओं के बादलों का विवरण लेकर
खेतों के खड़ंजे हो जाने की बात करने लगा तो
उन्होंने मुझे विश्वास की राजनीति खोजने के लिए
राजधानी में रहने की पेशकश की।
बात सिर्फ़ इतनी नहीं है कि मैं जो करना चाहता हूं
या करना जानता हूं वे करने नहीं देने देते
अंत में हुआ क्या कि मैं परामर्श देता और वह सहमत से हो जाते
मैं हिमालय कहता तो वह बचेन्द्रीपील का
नाम लेते। मैं योग कहता और वह आश्रम का नाम लेते
कहता कमर तो वह कमर पर बंधा पट्टा दिखा
देते। मैं कोए कहता तो वह गौरेए।
जाने कैसे मेरे मुंह से छूटा गुजरात
तो वह कह उठे अन्याय
मेरा तो काम न हुआ सही
पर एक खिड़की उनसे खुलवाकर हुआ
मैं संतुष्ट
जब निकला बाहर।