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इंतज़ार / शर्मिष्ठा पाण्डेय

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चाँद तोड़ा है,रौशनी चुराई है..चले आओ...
फिर इन आँखों में चाहत झिलमिलाई है..चले आओ...
दरख्तों से शनासाई छिपाई है चले आओ...
हवाओं से नयी खुशबू मंगाई है..चले आओ...

बड़े एहतमाम किये हैं..सरेशाम किये हैं...
अँधेरी शब को उजालों के निजाम दिए हैं...
कहीं खुद लूट न ले रास्ता ही आज रहबर को...
निगहबानी है मुश्किल में..चले आओ..चले आओ...

धड़कने गिनती हूँ खुद की...
सांस गिन गिन के लेती हूँ...
उफ़! कहीं रुक ही न जाए...
नब्ज़ ये थम ही न जाए..बड़ी कैफियत तारी है...
चले आओ..चले आओ...

तुम्हें नोमानियत शायद हो आंसुओं से ग़ुरबत से...
नज़र धुल धुल के आई हूँ..चले आओ..चले आओ...
तेरे बस एक तबस्सुम वास्ते क्या क्या न किया श.पा. ...
कहकहे क़र्ज़ में लायी..चले आओ..चले आओ...

बहुत अज़ीज़ थी मुझको अनापरस्ती ये मेरी...
मैं खुद को क़त्ल कर के आज आई हूँ..चले आओ...
सिपह्सालारी निभाई है शपा ने जंग -ए -मोहब्बत में...
शिकस्तों के नए तमगे सजा लायी..चले आओ...
बहुत शर्मिंदा है रुसवाई..चले आओ..चले आओ...