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इकलौता बैल / रामस्वरूप किसान

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इकलौता बैल
जेठ का तपता दिन
तंदूर की भांति
सिकती साल (कमरा)

सोई हुई हो तुम
नींद में निश्चिंत
मेरे पास ही चारपाई पर

मैं लिखता-लिखता
देखता हूं तुम्हारी ओर
सिर से पसीने की लकीर
कान के क़रीब से होती हुई
छाती की तरफ़ जाने को है तैयार
सारस जैसी लंबी गर्दन पर
नस फड़क रही है
सांसों का अरहट चल रहा है
निरंतर

इसी बीच
कभी-कभार तुम बुदबुदाती हो
शायद कोई स्वप्न सता रहा होगा
जिसमें चुभ रहा होगा
गृहस्थी की गाड़ी का जूवा
तुम्हारे कांधे पर ।
क्योंकि तुम
इकलौता बैल रही हो
मेरी प्रिय आनंदी
बैल तो मैं भी हूं
पर बेकार बैल
जो जागते हुए भी
लिख रहा है कविता
और तुम हो
जो नींद में भी
खींच रही हो गाड़ी ।

अनुवाद : नीरज दइया