इक्कीसवीं सदी चलो हम भी बदलते हैं
तो कुछ नए नए सही कपडे बदलते हैं।
बहके बहुत गए बहकाए कुछ हम भी
यों ही सही चलो बुढ़ापे में सँभलते हैं।
चलते रहे लिए उम्मीद कभी पहुँचेंगे
थक तो गए मगर कुछ और चलते हैं।
मुहब्बत-सा अगर कहीं था तो छिपा-सा
माशूक़ लेकिन आज के ज़्यादा मचलते हैं।
दिन से रात होती फ़िर दिन का उजाला
बदलो तुम भी यहाँ सभी मौसम बदलते हैं।