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इक्कीस हिंदी दोहे / एस. मनोज

बँगला, मोटरकार कार से, तुम्हीं बढ़ाओ मान।
मेरा तो ईमान ही, बस मेरी पहचान॥

फुटपाथी जीवन हुआ, कुहरे से बेहाल।
सुबह देख पाया नहीं, हरिचरना का लाल॥

धन-दौलत देगा नहीं, हर पल तुझको काम।
तू विवेक से जीत ले, जीवन का संग्राम॥

जाति-धर्म अब बन गया, दो धारी तलवार।
मानवता का हो रहा, जगह-जगह संहार॥
 
पल-पल कटते पेड़ ये, भोगवाद के नाम।
रोग शोक औ व्याधियाँ, हैं इसके अंजाम॥
 
केवल मन की शुद्धता, जीवन का श्रृंगार।
मन मैला है तो समझ, सभी धर्म बेकार॥

कभी किरण-सी तुम लगी, लगती कभी चकोर।
नयना तुमको देखकर, होते भाव-विभोर॥
 
अपनी पीर पहाड़ है, पर पीड़ा बेकार।
सदा स्वार्थी लोग का, यही रहा व्यवहार॥
 
तेरे होने का हुआ, तब मुझको अहसास।
चाँद, गगन से आ गया, जब खिड़की के पास॥

जाड़ा हो या लू चले, या सावन का मेह।
हर मौसम ही बेधता, निर्धन जन की देह॥
 
इस जीवन को हैं मिले, पल-पल कितने शूल।
बैठा तेरे पास तो, सभी गया मैं भूल॥
 
जो धन से हर चीज को, रहा आज तक तोल।
उसे पता होगा नहीं, कभी क़लम का मोल॥
 
आतुरता हर पल नहीं, आ सकती है काम।
संयम से जीता करो, जीवन का संग्राम॥
 
तुझे छोड़कर मैं कहाँ, रह पाऊँगा यार।
तेरे भीतर ही बसा, मेरा यह संसार॥

जलती धरती से हुआ, जब बादल को नेह।
पानी-पानी हो गया, आग उगलती देह॥

चिड़ियों का कलरव नहीं, जीती काँवर झील।
मानव अपने स्वार्थ में, गया इसे भी लील॥

मेरी थी अपनी कहाँ, कुछ भी यहाँ बिसात।
तेरे छूने से हुआ, सोने जैसा गात॥
 
चापाकल विधवा हुआ, कुआँ पी गया नीर।
नव दुनिया कि आज है, यही नई तस्वीर॥

कब तक हम यूँ ही रहें, बनकर केवल भीड़।
साहब जी सुनिए कभी, आम जनों की पीड़॥
 
खुशियों की चढ़ती बली, खो देता हूँ चैन।
जिस दिन मैं सुनता नहीं, तेरे मीठे बैन॥
 
तुझ-सा ही था हू-बहू, उपवन का हर फूल।
जिसे देखकर मैं गया, पल में ख़ुद को भूल॥