इक अचरज का
खेला देखा
हमने कल जंगल में
पूरब की खिड़की से उतरा
ज्यों ही सूरज नीचे
दिन ने अपने कैमकार्ड से
चित्र नदी के खींचे
तैर रहे थे
तट के बिरवे
उसके बहते जल में
धूप-छाँव थी बिछी
किन्तु आकाश नहीं दिखता था
इन्द्रधनुष के अक्षर
कोई लहरों पर लिखता था
लगा कि जैसे
सोना बरसा
हिरदय के आँचल में
बजी अचानक वंशी थी -
उड़ते दीखे जलपाखी
उनकी केंकारों ने दी थी
जोत-पर्व की साखी
घिर आईं थीं
मीठी यादें
उस उत्सव के पल में