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इक ख़ला सा है जिधर देखो इधर कुछ भी नहीं / याक़ूब आमिर

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इक ख़ला सा है जिधर देखो इधर कुछ भी नहीं
आसमाँ कौन-ओ-मकाँ दीवार-ओ-दर कुछ भी नहीं

बढ़ता जाता है अंधेरा जैसे जादू हो कोई
कोई पढ़ लीजे दुआ लेकिन असर कुछ भी नहीं

जिस्म पर है कौन से इफ़रीत का साया सवार
भागता है सर से धड़ जैसे कि सर कुछ भी नहीं

हर नया रस्ता निकलता है जो मंज़िल के लिए
हम से कहता है पुरानी रहगुज़र कुछ भी नहीं

एहतिमाम-ए-ज़िंदगी से हैं ये सब नक़्श ओ निगार
वर्ना घर कुछ भी नहीं दीवार-ओ-दर कुछ भी नहीं

घर में अपने साथ जब रक्खोगे ‘आमिर’ देखना
जिस को तुम कहते हो अब रश्क-ए-क़मर कुछ भी नहीं