भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

इक घर बना लेते जहाँ / विपिन सुनेजा 'शायक़'

Kavita Kosh से
Sharda suman (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 11:51, 10 जुलाई 2019 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=विपिन सुनेजा 'शायक़' |अनुवादक= |संग...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

इक घर बना लेते जहाँ, ऐसा नगर कोई न था
हम उम्र भर चलते रहे और हमसफ़र कोई न था

हमको सदा उस पार से आवाज़ सी आती रही
जब फ़ासिले तय कर लिए देखा उधर कोई न था

पत्थर को माना देवता लेकिन वो पत्थर ही रहा
हम गिड़गिड़ाते ही रहे उस पर असर कोई न था

ख़ुशफ़हमियों में हमनें कितना वक़्त ज़ाया कर दिया
ज़िन्दा रहे किसके लिए अपना अगर कोई न था

हमको हमारे बाद कोई याद करता किस लिए
कुछ शे'र कहने के सिवा हममें हुनर कोई न था