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इक ज़माना था कि जब था कच्चे धागों का भरम / गणेश बिहारी 'तर्ज़'
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इक ज़माना था कि जब था कच्चे धागों का भरम
कौन अब समझेगा कदरें रेशमी ज़ंजीर की
त्याग, चाहत, प्यार, नफ़रत, कह रहे हैं आज भी
हम सभी हैं सूरतें बदली हुई ज़ंजीर की
किस को अपना दुःख सुनाएँ किस से अब माँगें मदद
बात करता है तो वो भी इक नई ज़ंजीर की