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इक तजस्सुस दिल में है ये क्या हुआ कैसे हुआ / खातिर ग़ज़नवी

इक तजस्सुस दिल में है ये क्या हुआ कैसे हुआ
जो कभी अपना न था वो ग़ैर का कैसे हुआ

मैं कि जिस की मैं ने तो देखा न था सोचा न था
सोचता हूँ वो सनम मेरा ख़ुदा कैसे हुआ

है गुमाँ दीवार-ए-जिं़दाँ का फ़सील-ए-शहर पर
वो जो इक शोला था हर दिल में फना कैसे हुआ

रंग-ए-ख़ूँ रोज़-ए-अज़ल से है निशान-ए-इंक़िलाब
ज़ीस्त का उनवाँ मगर रंग-ए-हिना कैसे हुआ

ग़ज़नवी तो बुत-शिकन ठहरा मगर ‘ख़ातिर’ ये क्या
तेरे मसलक में उसे सजदा रवा कैसे हुआ