Last modified on 29 मार्च 2014, at 13:00

इक तिरा हिज्र दाइमी है मुझे / तहज़ीब हाफ़ी

सशुल्क योगदानकर्ता ३ (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 13:00, 29 मार्च 2014 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=तहज़ीब हाफ़ी |संग्रह= }} {{KKCatGhazal}} <poem> इ...' के साथ नया पन्ना बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

इक तिरा हिज्र दाइमी है मुझे
वर्ना हर चीज़ आरजी़ है मुझे

एक साया मिरे तआकुब में
एक आवाज़ ढूँडती है मुझे

मेरी आँखो पे दो मुक़दस हाथ
ये अंधेरा भी रौशनी है मुझे

मैं सुख़न में हूँ उस जगह कि जहाँ
साँस लेना भी शाइरी है मुझे

इन परिंदो से बोलना सीखा
पेड़ से ख़ामुशी मिली है मुझे

मैं उसे कब का भूल-भाल चुका
ज़िंदगी है कि रो रही है मुझे

मैं कि काग़ज़ की एक कश्ती हूँ
पहली बारिश ही आख़िरी है मुझे