एक दिन हर एक पुरानी दीवार टूटती है।
क्यूँ जाति की न अब भी दीवार टूटती है।
इसकी जड़ों में डालो कुछ आँसुओं का पानी,
धक्कों से कब दिलों की दीवार टूटती है।
हैं लोकतंत्र के अब कमज़ोर चारों खंभे,
हिलती है जब भी धरती दीवार टूटती है।
हथियार ले के आओ, औज़ार ले के आओ,
कब प्रार्थना से कोई दीवार टूटती है।
रिश्ते बबूल बन के चुभते हैं ज़िंदगी भर,
शर्म-ओ-हया की जब भी दीवार टूटती है।