भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

इक न इक दिन हमें जीने का हुनर आएगा / प्रेमचंद सहजवाला

Kavita Kosh से
आशिष पुरोहित (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 16:26, 21 नवम्बर 2011 का अवतरण

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज


इक न इक दिन हमें जीने का हुनर आएगा
कामयाबी का कहीं पर तो शिखर आएगा

इस समुन्दर में कभी दिल का नगर आएगा
मेरी मुट्ठी में भी उल्फत का गुहर<ref>मोती</ref> आएगा

अपने पंखों को ज़रा तोल के देखो ताइर<ref>पंछी</ref>
आस्माँ गुफ्तगू करने को उतर आएगा

चमचमा देता है आईने को किस दर्जा तू
जैसे इस तर्ह तेरा चेहरा निखर आएगा

आज इस शहृ में पहुंचे हैं तो रुक जाते हैं
होंगे रुख्सत<ref>विदा</ref> तो नया एक सफ़र आएगा

चिलचिलाहट भरी इस धूप में चलते चलते
जाने कब छांव घनी देता शजर<ref>वृक्ष</ref> आएगा
 
अपना सर सजदे में उस दर पे मुसलसल<ref>लगातार</ref> रख दे
इक न इक तो इबादत में असर आएगा

शब्दार्थ
<references/>